गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

सपनों का भारत



हर वर्ष दीपावली आती हैं और लाखों करोड़ों रुपए पटाखे बन धुएँ में बदल जाते हैं. हर वर्ष यहीं प्रश्न मन में उठता हैं कि क्या यहीं सही तरीका हैं त्योहार मनाने का..?
देश में जहाँ आर्थिक रूप से संपन्न लोग हैं वहीं एक वो तबका भी हैं जिसे दो वक्त की रोटी नसीब नही होतीं. कई बच्चे आज भी भूख से तड़पते हुए मौत की नींद सो जाते हैं.

कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की मार से परेशान चेहरे. कहीं भूकंप की चपेट में आए परिवार के अनाथ बच्चे. भूख से बिलखता मासूम और उसकी बेबस माँ. मज़बूर पिता जो गरीबी के कारण अपने बच्चों को नए कपड़े मिठाई नहीं दिला सकता. ऐसे हजारों चेहरे जिनके लिए दिवाली खुशियाँ नहीं लाती बल्कि उनके बच्चे ललचाई नजरों से उच्च वर्ग को दिवाली मनाते देखते हैं और आस लगाते हैं कि एक दिन उनकी किस्मत का तारा भी चमकेगा.

हर साल में ये सवाल अपने आप से करती हूँ. जब लोगो को हजारों रुपयों को जलाते हुए देखती हूँ. इस देश में एक वर्ग ऐसा हैं जो एक वक्त रोटी खाता है और दूसरे वक्त पानी से गुजारा करता है. वहीं दूसरी तरफ उच्च वर्ग कई तरह के मिष्ठान खाता हैं और बचा हुआ फेंक देता हैं.

मैं ये सोचती हूँ कि जितने रुपयों के हम पटाखे जलाते हैं वहीं रुपयों से यदि किसी जरूरत मंद की मदद की जाएँ तो सही मायने में त्योहार सार्थक होंगा. किसी गरीब की मदद कर के जो सुकून मिलेगा वो इन पटाखे से लाख गुना बेहतर हैं. मैं ये नहीं कहतीं की त्योहार नहीं मनाए, जरूर मनाए खुशियाँ तो बाँटने से बढ़ती हैं लेकिन उन्हीं खुशियों में कुछ ऐसे लोगों को भी शामिल करें जिनके लिए पेट भर भोजन सपने की तरह हैं. ऐसे चेहरों पर मुस्कान लाइए आपका त्योहार अनोखा होंगा ये मेरा दावा हैं.

मैं ये जानती हूँ कि केवल लिख देने या कह देने से कुछ बदलता नहीं बल्कि प्रयास करने से बदलाव आते हैं यह केवल अपनी वाहवाही पाने को लिखा गया लेख नहीं बल्कि मेरा प्रथम प्रयास हैं बदलाव की दिशा में.
मैं चाहती हूँ कि हम बदले हमारी सोच बदले हमारा तरीका बदलें ताकि देश में नई रोशनी नई किरण फैले और एक नई सुबह हो जिसमें हर जगह सुख शांति प्यार हों. जहाँ कोई भूख से दम न तोड़े.कोई लाचारी न हों. ऐसा भारत जहाँ केवल आत्मीयता और प्रेम हों भेदभाव न हों हिंसा न हों.

मुझे यकीन हैं कि आप लोग मेरा सपना साकार करने में मेरी मदद करेंगे और अब से हर वर्ष दिवाली नए तरीके से मनाएँगे और केवल दिवाली ही क्यों किसी को खुशियाँ देने के लिए हर दिन महत्वपूर्ण हैं बस हम फिजूल खर्च न कर किसी नेक कार्य में पूँजी लगाए. उम्मीद करती हूँ मेरा लिखा सार्थक होंगा.

“ न कहीं दंगा न कहीं फसाद होंगा
हिंदू, मुसलमान हर जगह साथ साथ होगा
सभी के बाग में मोहब्बत के फुल खिलते हों
हाँ मेरे सपनों का ऐसा भारत होगा”

प्रेषक
मोनिका दुबे (भट्ट)

14 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सोचते तो ऐसा बहुत से लोग हैं लेकिन कथनी और करनी का अंतर नहीं पाट पाते। काश सभी आपकी बातों को मान लें। मैं भी।

सुनील मंथन शर्मा ने कहा…

मेरे सपनों का ऐसा भारत कब बनेगा.

Manish Kumar ने कहा…

Kisi ki sahayta karna, kisi ki zindagi mein khushiyan lane ke liye to hum humesha pryatnasheel rahna chahiye.

Is bhavna ko kisi bhi tyohaar se jod kar dekhna mujhe sahi jaan nahin padta. Aakhir log agar aatishbaji par kharch karte hain to apratyaksha roop se is udyog se jude kitne mazdoor labhanwit hote hain.

Meri samajh se tareeka badalne ki juroorat nahin, haan apne aas paas jude gareeb tabke ke logon ko bhi jahan tak ho sake is jashna mein shamil karne ki juroorat hai.

adil farsi ने कहा…

monika ji aap ki soch acchi ha...aap jaisi soch ke hum bharat wasi ho jaye to hamara bharat swarg ho jayega...badhai kabhi mere blog par bhi aaiye.....

Udan Tashtari ने कहा…

प्रभावी एवं विचारणीय आलेख!!

Bhattmonika@gmail.com ने कहा…

मनीष जी आप जानते होंगे की जहाँ सबसे ज्यादा बारूद बनाया जाता हैं बम बनाए जाते है जगह का नाम हैं शिवाकाशी वहाँ ज्यादातर बच्चे काम करते हैं और उन बच्चों की हालत बारूद बनाकर अपाहिजो की तरह हों जाती हैं. वो बच्चे घर आकर अपने हाथों से खाना नहीं खा पाते मज़बूरी में काम करते हैं ताकि दूसरे खुशियाँ मना सकें ताली बजा सके जबकि उनके हाथ ताली बजाने लायक नहीं रहते. क्या ऐसे बच्चों को अपाहिज कर हम उनका भला कर रहे हैं? दूसरी बात भगवान राम जिस समय वनवास से लौटे थे कोई बारूद नहीं था तब भी लोगो ने जनता ने खुशियाँ मनाई थी.जो लोग ये कहते है की आतिशबाजी कर वे किसी की रोजी रोटी चला रहें हैं अपने जमीर से पूछें की वो भला कर रहें हैं या स्वयं की खुशी के लिए व्यर्थ बर्बादी?मोनिका भट्ट

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

बहुत अच्छा िलखा है आपने । देश के मौजूदा हालात को बहुत यथाथॆपरक ढंग से दशाॆया है आपने । कई सवाल भी खडे करती है ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

श्रीकांत पाराशर ने कहा…

Aapke vichar achhe hain. aise vicharon ka prasar hona jaruri hai. koi ratonrat to dunia nahin badal jayegi magar dheere dheere badlav avashya aayega. aapne sahi likha hai. ham lakhon karodon rupaye aatishbazi men kuchh ghanton ki khushi ke liye dhuyen men uda dete hain aur dusari taraf hamare aaspaas kitne hi log do vakt ki roti nahi kha paate hain. yah vidambana hi hai. bhukhe logon ki agar bhukh mitane men hamara thoda sa bhi yogdan ho to hamara janm lena sarthak ho sakta hai, ham itna bhi nahi samajh paate hain.

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " ने कहा…

लिख-पढ क्या बदला, इस दुनियाँ में मित्र.
आचरणों से बदलता, आया हरदम चित्र.
बदला हरदम चित्र, उन्हीं लोगों ने मोना.
त्यागा राजमहल को जिसने त्यागा सोना.
कह साधक कविराय स्वयं इस भाव से बदला.
सोचो मोना अब तक पढ-लिख कर क्या बदला?

बेनामी ने कहा…

अति उत्तम विचार. मैंने तो पटाका जलाना और बजाना काफी समय पहले ही बंद कर दिया. हमेशा से ही इच्छा होती थी कि कुछ जरूरतमंदों के लिए करून. पर माहौल नहीं बन सका.

ये सही है, कि लिखने से सब कुछ नहीं हो जायेगा.. पर लिखने से क्या होगा कि कम से कम अपने अन्दर के विचार बाहर तो आते हैं. कुछ न कुछ अच्छा ही होगा.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

दीवाली .....ये क्या करें ??
.................दीवाली की रात बीत चली है ....दिल का उचाटपन बढ़ता ही चला जा रहा है .....सबको दीवाली की शुभकामनाएं देना चाहता हूँ....मगर वे जिनकी सामर्थ्य नहीं दीवाली मनाने की.....जो आज भी भूखे पेट बैठे ताक़ रहे हैं टुकुर-टुकुर महलों की तरफ़....वे जो बाढ़ के बाद जगह-जगह कैम्पों में अपने सूनेपन को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं......वे जिनके रिश्तेदार देश की सीमा की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए हैं .....बच्चों के छोड गए पटाखों को चुन रहे सड़कों पर कुछ काले-कलूटे बच्चे......क़र्ज़ ना चुका पाने की वजह से आत्महत्या कर चुके किसानों के बचे हुए परिवार ......दाने-दाने को मोहताज़ करोड़ों लोग.....जो ना जाने किस क्षण काल-कलवित हो जाने वाले हैं .......ठण्ड में खुले आसमान के नीचे सोने वाले छत-विहीन लोग .....ठण्ड से बिलबिलाते ...कंपकंपाते
आसमान में फटते जोरदार पटाखों की ओर बड़ी ही हसरत से ताकते गरीब-गुर्गे ...........!!.....दीपावली .....देश का सबसे प्रमुख पर्व ........बहुसंख्यक समाज का प्रमुख पर्व .......दीवाली....लफ्ज़ के मायने संम्पन्नता का.... वैभव का प्रदर्शन ....दीवाली....मतलब अरबों-अरबों रूपये का धुंआ बनकर आसमान में क्षण भर में उड़ जाना ..... दीवाली... मतलब ...गरीबों की आंखों का फटा-का-फटा रह जाना .... उनकी हसरतों का जग जाना ...... सोचता हूँ हमें इस कदर मुकम्मल तरीके से दीवाली मनाता देख यदि इनका मन भी एक दिन मचल ही जाए तो ये क्या करेंगे .... मैं तो जो जवाब सोच रहा हूँ,सो सोच रहा हूँ.....आप ही बताये ना कि ये क्या करेंगे ?? मैं जवाब के इंतज़ार में हूँ !!!!

hindi-nikash.blogspot.com ने कहा…

आपकी लेखनी दमदार है. आपका गद्य पढने के बाद कविताओं के प्रति उत्कंठित हूँ और आपकी कवितायें पढ़ना चाहूँगा.

सादर- आनंदकृष्ण, जबलपुर
http://www.hindi-nikash.blogspot.com

sandhyagupta ने कहा…

मैं ये जानती हूँ कि केवल लिख देने या कह देने से कुछ बदलता नहीं बल्कि प्रयास करने से बदलाव आते हैं यह केवल अपनी वाहवाही पाने को लिखा गया लेख नहीं बल्कि मेरा प्रथम प्रयास हैं बदलाव की दिशा में.

Aap akeli nahin hain. Is muhim me hum sab aap ke saath hain.

guptasandhya.blogspot.com

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर पोस्ट.