सोमवार, 19 जनवरी 2009

मेरी दादी


जब मैं छोटी थी तब तुम मुझे खोज लिया करती थी छुप जाने पर और अपनी गोद में बिठाकर ढेर सारे किस्से कहानियाँ सुनाती थी. बाबूजी जब गुस्सा होते तो तुम झट बच्चों की तरफदारी करती चाहें बाबूजी लाख नाराज हों.

पास पड़ोस की तुम अकेली ही वैद्य थी तुम्हारे पास हर बीमारी के लिए एक राम बाण औषधि होती थी. गाँव में किसी के घर बच्चे का जन्म होने वाला हों तो तुम ही थी जो क्या करना चाहिए क्या नहीं वो बताती थी. किसी के यहाँ विवाह तुम्हारे बिना संभव न था क्योकि सारे रस्मो रिवाज तो तुम्हें ही पता थे. चाहें वो मंडप, माता पूजन हों या बन्ना बन्नी गाना हों तुम सबसे अनमोल थी. घर में यदि कथा हों रही हैं तो पंडित जी को बार बार हिदायत देती थी तुम और पंडित की मजाल जो तुम्हारी बात से टल जाए.

मुझे भी तो कई बार प्यार भरी झिड़की देती थी जब मुझे खाना बनाना नहीं आता था. और माँ पिताजी को फटकार भी पड़ती थी मुझे घर के काम न सिखाने के लिए. एक बार तो तुमने मुझसे हाथ पकड़ कर मक्के की रोटी बनवाई थी. और रोटी जल जाने पर भी तुमने बड़े प्यार से केवल वही रोटी खाईं थी और कहा था की तेरे हाथ की रोटी सबसे अच्छी बनी हैं.
जब स्कूल में मुझे बड़ी क्लास की लड़की ने झगड़ा होने पर मेरी पिटाई की थी तब तुम ही थी जो मेरे लिए उस लड़की को घर जाकर फटकार आई थी. और तो और एक बार टीचर ने होमवर्क न करने पर जब मुझे सजा दी थी और मेरे हाथ सूज कर लाल हों गए थे तो तुमने उस टीचर की वो खबर ली थी कि पूरे स्कूल को हिला दिया था. जब मेरी जॉब लगी थी तब तुम इतनी खुश हुई की पूरे गाँव को पता चल गया था की मै समाचार पत्र में काम कर रहीं हूँ. साथ ही तुम्हें मेरे विवाह की भी चिंता थी जो तुम समय समय पर माँ पिताजी के सामने जाहिर करती थी. जब शादी की तारीख पक्की हुई थी तो तुम खुशी से नाच उठी थी और जमकर तैयारियों में जुट गई थी. जब ढोल बजता था तो तुम खुशी से नाचती थी और मेरी नजर उतारती थी. बिदाई के समय खूब रोई थी और फिर मुझे गाड़ी तक छोड़ने आई और मुझे समझाइश भी दी थी की बिटिया अपने घर का मान रखना और ससुराल में सबको खुश रखना .

तुम मेरे लिए सब कुछ थी माँ पिताजी से मुझे कुछ मनवाने के लिए मैं सदा तुम्हारा सहारा लेती थी. और पिताजी तुम्हारी बात कैसे टालते तुम उनकी माँ जो थी. मेरी दादी थी तुम. और मैं तुम्हारी लाड़ली पोती.

अचानक तुम कहाँ खो गई दादी..? तुम्हें कितना खोजा पर इस बार तुम नहीं मिल रहीं हों. बचपन में तो मैं तुम्हें झट खोज लेती थी और तुम्हारे गले लग जाती थी. पर आज तुम नहीं मिल रहीं हो दादी...? जब पिताजी ने बताया कि तुम हम सबको छोड़ कर चली गई हो तो मुझे लगा जैसे मेरा बचपन चला गया . जो अब तक तुम्हारे होने पर चंचलता थी वो तुम्हारे साथ चली गई. मेरे साथ साथ माँ पिताजी भी बहुत अकेले हों गए हैं दादी.
जब दादाजी हमें छोड़ कर गए थे मैं तुमसे लिपटकर रोई थी पर मुझे तुम्हारा हौसला था अब मैं बहुत अकेली हूँ दादी...... गाँव वाले भी तुम्हें बहुत याद करते है दादी..... तुम क्यों चली गई....? …. दादी मुझे तुम्हारी बहुत याद आती हैं......

प्रेषक
मोनिका भट्ट (दुबे)

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

कलम...?


असंतुष्ट हूँ, चिंतित हूँ, परेशान हूँ, कश्मकश में हूँ. बहुत दिनों से लिखने का प्रयास कर रही हूँ मगर जब भी कलम हाथ में लेती हूँ विचार आता है कि क्या मेरी कलम अपना उद्देश्य निभा रही हैं? क्या मेरी आवाज वहा पहुँच रही है जहाँ में पहुँचाना चाहती हूँ.
बम ब्लास्ट हों रहे हैं.देश में उथला पुथल मचा हैं. कई लोगों ने लिखा चर्चा की और भूल गए........ मै नहीं भूल पा रहीं हूँ. मै शायद दिल से सोचती हूँ और दिल से ही लिखती भी हूँ तभी मुझे शायद एक अच्छे पत्रकार की तरह लिखना नही आता तभी मुझे चंद प्रतिक्रियाओं और लेखन से शान्ति नहीं मिलती.........??

कितने ब्लॉग हैं और कितने सारे लोग रोज लिखते हैं और बस लिखते ही रहते हैं. देश पर राजनीति पर अर्थव्यवस्था पर और न जाने कितने विषयों पर रोज लिखा जाता हैं लेकिन इन सबका कितना असर हों पाता हैं? कितने लोग है जो न केवल पढ़ते हैं,अमल भी करते हैं? समझ नही पा रहीं हूँ कि मैं कलम से क्या चाहतीं हूँ मुझे मेरे लेखन का उद्देश्य नहीं मिल रहा कही खो गया हैं बहुत खोजा मिला नहीं क्या कोई मुझे बताएगा की आज के समय में कलम का उद्देश्य क्या होगा? या क्या होना चाहिए?

बस आज इतना ही आपको मेरे सवालों का जवाब मिलें तो मुझे बताइए.


प्रेषक
मोनिका भट्ट (दुबे)