गुरुवार, 17 जून 2010

वास्तविक दान


हाल ही मे जब मे अपने मायके से कोलकाता वापिस आ रही थी तब ट्रेन मे मेरे साथ एक सभ्रान्त परिवार की बुजुर्ग महिला भी सफ़र कर रही थी. अपने पूरे सफ़र के दौरान मेने देखा की वो जब भी कोई नदी या तालाब आता तो सिक्के निकाल कर उसमे डालती थी और एक बार तो उन्होने पूरा १०० रु. का नोट बाहर डाल दिया जब मेने उन्हे हेरानी से देखा तो खिसियानी हँसी हँसते हुए बोली की पर्स मे हाथ डालने पर सबसे पहले १०० का नोट आया सो यही डाल दिया जो जल माता के भाग्य मे हो वही सही.

मे सोच रही थी की अगर उनके हाथ मे ५०० या १००० का नोट आता तो क्या वो भी वो पानी मे डाल देती दान और पुण्य कमाने के नाम पर. और ये जानते हुए भी की पानी मे जाने पर ये किसी के काम नही आ पाएँगे. इसी तरह वो पूरे रास्ते भिखारियो को भी कुछ न कुछ देती रही.

बात केवल उन महिला की नही हे मेने कई इस तरह के लोगो को देखा हे जो नदियो मे मंदिरो मे खूब सारा दान करते हे और समझते हे की एसा करने से उनके सारे पाप धुल जाएँगे. दान करना मे ग़लत नही मानती लेकिन दान सिर्फ़ दिखावे के लिए और फ़िजूल किया जाए ये बात अखरती हे.

आप ये क्यो नही सोचते की इन्ही रुपयो से किसी ग़रीब बच्चे की स्कूल की फिस दी जा सकती हे. या उसे कुछ खिलाया जा सकता हे. किसी ज़रूरतमंद की मदद से बड़ा कोई पुण्य नही हो सकता. कई लोग धार्मिक स्थानो पर लाखो रुपयो का दान करते हे और अपने ही घर काम करने वाली बाई के बच्चो को ज़रा सा कुछ देने मे भी कतराने लगते हे. भगवान के लिए सोने और चाँदी के मुकुट या सिंहासन बनवाए जाते हे और झोपड़ पट्टी के लोगो को देख नाक भौ सिकोड लेते हे. ये केसा दान हे. इसमे किसका भला होगा ये बात मुझे समझ नही आती.

दिखावे मे दिया गया दान दान नही होता दान छुपा कर दिया जाए तो उसका महत्व हे. आजकल धर्म के नाम पर दान आम बात हे. मे इसका विरोध नही करती पर मुझे तरीका ठीक नही लगता. कही ये लाइन पढ़ी थी वही जेहन मे आ रही हे

"तेरा बाजार तो महँगा बहुत हे
लहू फिर क्यो यहा सस्ता बहुत हे
कलम को छोड़ माला हाथ मे ले ले
धर्म के नाम पर धंधा बहुत हे "

कहने का तात्पर्य सिर्फ़ यही की धर्म के नाम पर आप क्या कर रहे हे एक बार सोचे उसके बाद कदम उठाए.

मे तो इतना समझती हू की "घर से मस्जिद हे बहुत दूर चलो यू कर ले किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए" दिखावा कर के मंदिर मे दान करने की बजाए किसी बच्चे को शिक्षा दिलवाए उसके कपड़े बनवाए उसके खाने का प्रबन्ध करे तो शायद सही अर्थो मे भगवान की अर्चना होगी और वो प्रसन्न होंगे. और हमारा इंसानियत का धर्म हम सच्चे अर्थो मे निभा पाएँगे. जो धर्म बाकी सभी धर्मो से उपर हे. बस यही निवेदन हे आप सभी से की एक बार मेरी बात पर विचार ज़रूर कीजिएगा.

प्रेषक
मोनिका भट्ट (दुबे)





32 टिप्‍पणियां:

JEEVAN SANGEET ने कहा…

"Badlo saree sonch galat tatkal
jo tumko sukh-shanti nahi deti hai .
us kamjori ko tyago tatkal
jo tumko badhne kabhi nahi deti hai"

सुरेन्द्र Verma ने कहा…

Khyaal to achchhe hai par sanskriti bhi yahi hai.........

Bhavesh (भावेश ) ने कहा…

मेरी नज़र में, ये दान नहीं है | ये तो लोगो को दिखने के लिए किया हुआ एक दिखावा और खुद से किया हुआ एक छलावा है.

M VERMA ने कहा…

"घर से मस्जिद हे बहुत दूर चलो यू कर ले किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए"

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

कहीं पढ़ा था-"दान करने के लिए विचार करने वाला कभी दान कर ही नही सकता।"

अच्छी पोस्ट है।

हें प्रभु यह तेरापंथ ने कहा…

nice

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

असल में कुछ लोग लकीर को पीटे जा रहे हैं और उसे धर्म कहते हैं। हमारी संस्‍कृति में चराचर जगत के संरक्षण की बात कही गयी है लेकिन पता नहीं यह पैसा फेंकने वाली परम्‍परा कहाँ से आयी है? दुख तो इस बात का है कि हमारे यहाँ धर्म गुरुओं का अम्‍बार लगा है लेकिन वे सब भी इन बातों का खण्‍डन नहीं करते। यह ऐसा विषय है कि इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है।

Subhash Rai ने कहा…

Monikaij, is desh men dharma ki galat samajh ne bahut kuchh bigada hai. dharm ke nate itne andhvishvas, itne bantvare hain, dharm ke nam par talvaren chalti hain, dange hote hain. aisa dharm jo adami ko aadami nahin samajhta ho, khatm hona chahiye, par kaise? ap jis disha man sovhtin hain, vaisa sochne vali ap akeli nahin hain, par kathinaai yah hai ki ve sabhi log, jo sahi sochte hain, apne-apne men tanha mahsoos karte hain. jis din ve ek kaphile men khade honge, dharm ki banavati divar darakani shuru ho jayegi.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ये बात बिल्कुल ठीक है... मेरा भी मानना एरही है ... धर्म स्थानों पर तो बहुत से लोग दान देते हैं ... आवश्यकता है ज़रूरतमंद लोगो की मदद करने की .... हम भारतीयों को ये बात सीखने की ज़रूरत है ...

Maria Mcclain ने कहा…

nice post, i think u must try this website to increase traffic. have a nice day !!!

डा.मीना अग्रवाल ने कहा…

मोनिका तुम्हारी विचारधारा से मैं पूरी तरह सहमत हूँ.इस तरह का दान हमारी संस्कृति नहीं है. जो धन किसी के काम न आए,वह न तो दान है और न उससे किसी का भला होने वाला है. हमें मिलकर क़दम बढ़ाने होंगे, तभी हम इस ग़लत धारणा को बदलने में कामयाब हो सकते हैं.वास्तव में दान वही सार्थक है,जिससे किसी ग़रीब को सहारा मिल रहा हो,किसी भूखे को भोजन मिल रहा हो या फिर किसी ग़रीब बच्चे को शिक्षा मिल रही हो.ऐसे दान को धर्म से जोड़ना भी बहुत बड़ी भूल है.कोई धर्म यह नहीं कहता है कि धन को इस तरह बेकार किया जाए.

डॉ. मीना अग्रवाल

पंकज मिश्रा ने कहा…

आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं। आपने लिखा कि पैसे पानी में डालने के बजाया किसी बच्चे की शिक्षा का या फिर खाने का प्रबंध किया जा सकता है। बिल्कुल सही है। लेकिन मुझे यह भी लगता है कि यह सब चीजें अपनी जगह हैं और धर्म के सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना दूसरी बात। सब्ब दानं धम्म दानां जिनाति। अर्थात सभी दानोंं में धर्म का दान सबसे बड़ा है। अच्छी पोस्ट के लिए साधुवाद।

पंकज मिश्रा ने कहा…

आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं। आपने लिखा कि पैसे पानी में डालने के बजाया किसी बच्चे की शिक्षा का या फिर खाने का प्रबंध किया जा सकता है। बिल्कुल सही है। लेकिन मुझे यह भी लगता है कि यह सब चीजें अपनी जगह हैं और धर्म के सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना दूसरी बात। सब्ब दानं धम्म दानां जिनाति। अर्थात सभी दानोंं में धर्म का दान सबसे बड़ा है। अच्छी पोस्ट के लिए साधुवाद।

विजयप्रकाश ने कहा…

बढ़िया पोस्ट...साधारणतया हमारे बुजुर्ग धर्म के नाम पर जो कुछ भी करते हैं हम भी वही करने लगते हैं जबकि हमें उसका कारण खोजना और अधुनिक युग में उसकी प्रासंगिकता को परखना चाहिये .

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

तेरा बाजार तो महँगा बहुत हे
लहू फिर क्यो यहा सस्ता बहुत हे
कलम को छोड़ माला हाथ मे ले ले
धर्म के नाम पर धंधा बहुत हे "

बहुत अच्छी पंक्तियों से उदहारण दिया आपने ......

आपका कहा सही है ....जिसे जरुरत हो उसे दिया जाये ....यूँ नदी में बहा देने से पुन्य नहीं मिलता .....

आपका बेटा बहुत प्यारा है .....!!

Aseem ने कहा…

accha likha hai aapne..saccha daan to "seva" ka hota hai.."paison" ka nahi..paison ke daan "ahankaar mishrit" hota hai..seva ka daan "prem mishrit"

संजय पाराशर ने कहा…

आपके विचारों का मै सम्मान करता हूँ, किन्तु हमारे देश में धर्मान्धता की जड़ें काफी गहरे तक पहुच चुकी है... फिर भी मुझे विश्वाश है आने वाले ५०-७५ सालों के बाद काफी कुछ बदलाव हो जाएगा...

संजय पाराशर ने कहा…

आपके विचारों का मै सम्मान करता हूँ, किन्तु हमारे देश में धर्मान्धता की जड़ें काफी गहरे तक पहुच चुकी है... फिर भी मुझे विश्वाश है आने वाले ५०-७५ सालों के बाद काफी कुछ बदलाव हो जाएगा...

संजय पाराशर ने कहा…

आपके विचारों का मै सम्मान करता हूँ, किन्तु हमारे देश में धर्मान्धता की जड़ें काफी गहरे तक पहुच चुकी है... फिर भी मुझे विश्वाश है आने वाले ५०-७५ सालों के बाद काफी कुछ बदलाव हो जाएगा...

निर्झर'नीर ने कहा…

"तेरा बाजार तो महँगा बहुत हे
लहू फिर क्यो यहा सस्ता बहुत हे
कलम को छोड़ माला हाथ मे ले ले
धर्म के नाम पर धंधा बहुत हे

yakinan aapke vichar sarahniiy h

रंजू भाटिया ने कहा…

सही लिखा है आपने दान यह दिखावा लगता है .

sanjeev sameer ने कहा…

pahli bar apke blog par aya, kayi post bahut achche hain. badhai swikaren.

Neeraj Nayyar ने कहा…

really nice on, must say keep it up

गीतिका वेदिका ने कहा…

सही विषय चुना पोस्ट के लिए आपने, लेकिन जिनकी आदत हो चुकी है इस तरह दान करने की वो शरीर छूटने पर ही छूटेगी~ भगवान उन्हें सदबुद्धि दे!

Forrest Gump ने कहा…

cool , well said.

Kuldeep Saini ने कहा…

sahi hai log sirf apne paapo ko dhulne ke liye daan karte hai or kisi jaroorat mand ki madad karne se katrate hai

Rahul Hada ने कहा…

मरी नज़र में शिक्षा का धान वास्तविक दान है
me aapke kheyalo se sehmat hu..

rajesh singh kshatri ने कहा…

bahut khub

बेनामी ने कहा…

"तेरा बाजार तो महँगा बहुत हे
लहू फिर क्यो यहा सस्ता बहुत हे
कलम को छोड़ माला हाथ मे ले ले
धर्म के नाम पर धंधा बहुत हे"

बहुत सुंदर

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति...लाजवाब।

*गद्य-सर्जना*:-“तुम्हारे वो गीत याद है मुझे”

Vijuy Ronjan ने कहा…

Kya baat hai...main bahut dino se is par sochta tha...maine kaha bhi tha ek baar apni patni se ki jab is sabhyata ke avshesh dhoondhe jaayenge to aane wali sadi yahi padhegi jki bharat ki nadiyon mein pani ki jagah sikke bahte the...
Mujhe kuchh panktian yaad aa rahi jo mandir ke pariprekshya me sateek hai..
"ANDAR MOORAT PE CHADHE GHEE PURI MISTAANN,
BAHAR MANDIR KE KHARA, ISHWAR MAANGE DAAN."
Hamari soch badalni hogi...
Dharm logon ki sewa hai na ki moorat pe chadhawa.Jitne sone chandi air dhan mandiron me chadhaye jaate hain, utna agar gareebon ki bhookh mitane ke kaam aaye to ye desh kabhi bhookh ki peera nahi sahega.

Aap bahut sensitiv hain aur aapki sensitivity bahut positive.Iski akshunnta banaye rakhiyega.

बेनामी ने कहा…

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